बीकानेर राजपरिवार की अंतिम महारानी और राजमाता सुशीला कुमारी का शुक्रवार देर रात लालगढ़ स्थित अपने आवास पर निधन हो गया। सुशीला कुमारी का अंतिम संस्कार रविवार को सागर गांव में स्थित राजपरिवार के श्मशान घाट पर किया जाएगा। इससे पहले शनिवार को जूनागढ़ में उनकी पार्थिव देह आम लोगों के दर्शन के लिए एक बजे से रखी गई है। राजपरिवार की रीति नीति के तहत ही उनका अंतिम संस्कार होगा। राजमाता सुशीला कुमारी की पोती और बीकानेर पूर्व की विधायक सिद्धि कुमारी देर रात अस्पताल पहुंच गई थीं।
देश की आजादी के बाद भी राजतंत्र की परंपराओं निबाई जाती थी। ऐसे में साल 1950 में महाराजा सार्दुल सिंह के पुत्र राजकुमार करणी सिंह का राज्याभिषेक किया गया था। उसी समय सुशीला कुमारी को महारानी का सम्मान मिला। साल 1971 में जब प्रिवी पर्स जैसी व्यवस्था समाप्त हो गई। तब तक वो महारानी रही। महाराजा करणी सिंह के निधन के बाद उन्हें राजमाता के रूप में स्वीकार किया गया। पूर्व राजपरिवार सहित बीकानेर में आम आदमी उन्हें राजमाता के रूप में ही संबोधित करता रहा। छह सितम्बर 1988 को महाराजा करणी सिंह के निधन के बाद से राजपरिवार की सारी व्यवस्था सुशीला कुमारी ही संभालती रही।
सुशीला कुमारी का जन्म 1929 में हुआ था। राजसिंह डूंगरपुर की बहन सुशीला कुमारी का जन्म डूंगरपुर राज परिवार में हुआ। उनका विवाह बीकानेर राजपरिवार में हुआ। देश की आजादी से पहले वो महारानी रही। इसके बाद महाराजा करणी सिंह बीकानेर से 1952 से 1977 तक सांसद रहे। ऐसे में सुशीला कुमारी ने लोकतंत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अब उनकी पोती सिद्धि कुमारी बीकानेर पूर्व से पिछले तीन चुनावों में लगातार विधायक है।
खास बात ये थी कि सुशीलाकुमारी से मिलने वालों से राजस्थानी में ही बात करती थी। अगर कोई गलती से भी उनके आगे हिन्दी या अंग्रेजी में बात करता तो वो पूछ लेती थी कि राजस्थानी नहीं आती क्या? खासकर बीकानेर के स्थानीय लोगों से वो राजस्थानी में ही बात करना पसन्द करती थीं। अब उनकी पोती सिद्धि कुमारी भी राजस्थानी में ही बात करती है।
राजमाता पिछले कई सालों से अस्वस्थ थीं। उन्होंने आम लोगों से मिलना बंद कर दिया था। अस्वस्थता के बीच वो सामाजिक जिम्मेदारियां जरूर पूरी करती थीं। बीकानेर के पुष्करणा समाज के सावे की अनुमति देना हो या फिर कोई अन्य राजपरिवार कार्य हो, सुशीला कुमारी स्वयं मिलती थी।